Wednesday, September 1, 2010

बुढापे का सूनापन

में और मेरे दो साथी जम्मू से वापस बिलासपुर आ रहे थे । पठानकोट से जेसूर पहुँचने पर एक पेट्रोल पंप पर अपनी कार में पेट्रोल भरवाने के लिए रुके। जैसे ही पेट्रोल भरवा कर हम वहां से प्रस्थान करने ही वाले थे कि वहा सड़क के किनारे खडा एक भद्र दिखने वाला करीब साठ वर्षीय व्यक्ति हमारी और बढ़ा। उसने हाथ के इशारे से हमें रोका। वो हमारे पास आया और बड़ी नम्रता से उसने हमारे से नूरपुर के लिए लिफ्ट मांगी। जेसूर से नूरपुर का लगभग १५किलोमीटर का सफ़र है। गाडी में हम तीन दोस्त ही थे । मैं पिछली सीट पर अकेला ही बैठा था । हम तीनों दोस्तों ने आँखों आँखों में एक दूसरे की और देखकर एक सहमती बनायी और उस सज्जन से दिखने वाले व्यक्ति को कार में बिठा लिया । वो पिछली सीट पर मेरे साथ बैठ गया। चंद सेकंडों की खामोशी के बाद एक औपचारिक वार्तालाप शुरू हो गया । पहले उसने हमारे बारे पूछा कि हम कहाँ जा रहे है। उसके बाद जैसा कि अमूमन होता है, मौसम के हालचाल के बाद देश की दुर्दशा और राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार पर आम तौर पर दी जाने वाली टिप्पणियों के साथ एक दुसरे का व्यक्तिगत परिचय ही हो पाया था कि हम नूरपुर पहुँच गए । नूरपुर जीवन बीमा निगम के कार्यालय में थोडा सा काम होने की वजह से हम भी थोड़ी देर के लिए वहाँ रुक गए । हमारा इरादा काम हो जाने तक वहाँ चाय पीने का था । वो सज्जन हमसे विदा लेकर थोड़ी दूर जाने के बाद वापिस हमारी ओर आये । उन्हें अपनी ओर आता देख हम कयास लगाने लगे कि कहीं इन महानुभाव का इरादा कहीं हमारे साथ आगे चलने का तो नहीं बन गया है। अभी हम किसी नतीजे तक पहुँचते वो सज्जन मेरी ओर मुखातिब होकर बोले क्या आप दो मिनट के लिए मेरी बात सुनेंगे। मैंने अपने साथियों को कहा कि जब तक आप एल आई सी कार्यालय से अपना काम करवाते हैं मैं इन साहेब के साथ बतिया लेता हूँ । मेरे दोनों साथी एल आई सी दफ्तर चले गए । मैं और वो व्यक्ति सड़क के किनारे खड़े हो गए। उन सज्जन ने जो आपबीती मुझे सुनायी उसने मेरे सामने कई सवाल खड़े कार दिए और मैं कई दिनों तक उसके बारे में सोचता रहा। वो सज्जन पठानकोट के डी ऐ वी कॉलेज में इंग्लिश भाषा के प्रोफेस्सर थे। उन्होंने बताया कि उनका इकलौता बेटा इंग्लैंड में इंजिनियर है।आगे की कहानी उसी सज्जन की जबानी बताता हूँ । " मैंने और मेरी बीवी ने बेटे को बड़ी मेहनत और इमानदारी से पढ़ाया इंजीनियरिंग करवाई। हायर एजुकेशन के लिए इंग्लैंड पढने भेजा । पढाई के बाद इंग्लैंड की किसी कंपनी में नौकरी भी मिल गयी। हमपति पत्नी बहूत खुश थे। कम्युनेशन के साधन कम होने के कारण चिठी पत्री ही हमारे हालचाल के संदेशों के आदान प्रदान का एकमात्र साधन था जिसके लिए हमें कई कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता था । इसी तरह हमारे दिन शान्ति से व्यतीत हो रहे थे कि एक दिन हमें हमारे बेटे की चिठी मिली जिसमे उसने लिखा था कि उसने इंग्लैंड की किसी गोरी लडकी के साथ ब्याह रचा लिया है। आनन् फानन में हुए इस फैसले के लिए चिठ्ठी में माफी मांगकर उसने अपनी नयी नवेली विदेशी बीवी की तारीफ़ के पुल बंधने के साथ अपनी पत्नी के साथ शीघ्र देश आने का वादा किया हुआ था । एक क्षण के लिए झटका सा लगा । लेकिन झूठी सी तसल्ली देकर अपने आप को तो समझा लिया पर अपनी बीवी को क्या तर्क दूंगा यह सोच कर परेशान हो रहा था । किसी तरह उसे भी समझाया लेकिन सदमें से उबरने में हमें बहूत हिम्मत का सबूत देना पड़रहा था। में तो किसी तरह समझौता कर रहा था लेकिन अपनी बीवी की आँखों में बेटे की बहू के लिए बुने गए सपनों को टूटने का दर्द आसानी से देखा जा सकता था । दिन निकलते गए । एक दिन चिठी आई कि हमारे पोता होने वाला है। उसकी मां ने बहू को भारत लाकर यहीं जच्चगी कराने के लिए लिख तो दिया लेकिन मैं जानता था कि यह संभव नहीं है। जैसी कि शंका थी वाही हुआ। चिठी में इंडिया में सुविधा की कमी का रोना रोते हुए बहू की मंशा भी जाहिर कर दी कि वोह भी इंडिया में बच्चा नहीं जानना चाहती है। चिट्ठी में बहू और पोते के साथ जल्दी ही भारत आने का वादा ज़रूर किया था। पोते के जन्म का समाचार भी आ गया लेकिन साल पर साल बीतते गए चिट्ठियों का सिलसिला भी एक औपचारिकता मात्र रह गयी। बीवी उम्र के लिहाज से कम लेकिन बेटे के गम में ज्यादा ही बीमार रहने लगी।इस दौरान बहू के दूसरा पोता भी हो गया। लेकिन फोटो, चिट्ठियों और कुच्छ दिन तक इन्टरनेट पर चेट्टिंग.
और एक दिन अपने बेटे , बहू और पोते के इंतज़ार में उसने दम तोड़ दिया। बेटे को फोन पर इत्त्लाह दी लेकिन मां के मरने पर भी वोह नहीं आ सका। अब कभी कभार फोन पर बात होती है तो जैसे बच्चों को बहलाया जाता है उसी अंदाज में भारत आने की बड़ी भारी इच्छा होने के बावजूद समय की कमी का रोना , कभी कभी नौकरी की मजबूरियाँ आदि आदि। मेरे पास अपना मकान है। थोड़ा बहुत पैसा भी संजो कर रखा है। लेकिन अपने अकेलेपन का कोई इलाज़ नहीं है। पुराने संगी साथी अपनी अपनी घर गृहस्थी में मशरूफ हैं । कभी कभार किसी पुराने साथी के घर चला भी जाता हूँ तो उनके बेटे और बहुएं अवाछित अतिथि की तरह व्यवहार करते हैं तो अजीब सा लगता है। अब तो किसी के घर जाने का मन भी नहीं करता है। यह तो है सारी कथा लेकिन अब असल मुद्दा यह हैकि आप से बात करके लगा कि आप मेरी स्थिति को समझेंगे। यदि आपकी नज़र में कोई ऐसी ज़रुरत मंद औरत हो जो मेरे साथ रह सके तो मैं अपना सब कुछ उसके नाक करने को तैयार हूँ। यदि कोई परित्यक्त या बच्चों वाली vइध्वा भी हो तो में उसके बच्चों को पढ़ाने और अन्य जिम्मेवारी लेने को भी तैयार हूँ। इस उम्र में मुझे शारीरिक नहीं बल्कि ऐसे साथी की जरूरत है जो मानसिक रूप से मेरा साथ निभा सके। "
इतनी देर में मेरे दोनों साथी अपना काम करवाकर आ गए। मैंने संक्षिप्त में उन्हें सारी बात सुनायी । मैंने और मेरे साथियों ने कोरा सा आश्वासन देकर उस से रुखसत ली । हालांकी रास्ते में मेरे साथी चटकारे ले ले कर उसकी हंसी उड़ा रहे थे लेकिन उसके अकेलेपन के अहसास ने मुझे झकझोर सोचने पर मजबूर था। उसकी आँखों का सूनापन किसी को भी तन्हाई का अहसास करवा सकता था। यह सब लिखते समय भी मेरी आँखों केसामने उस शख्स की तन्हाई छलक रही । क्या हम अपने बच्चों से ज्यादा ही उम्मीद नहीं लगा रखते है।

Sunday, August 1, 2010

फ्रेंडशिप डे एंड फ्रेंडशिप

कल सुबह टी वी ऑन किया तो सबसे पहली खबर जो चल रही थी वो दिल्ली के रईसजादों के बिगडैल नवयुवकों और युवतियों द्वारा शराबी हालत में अपनी वोक्स वैगन कार सड़क किनारे खड़े एक डम्पर से टकराने के बाद पुलिस कर्मी और मिडिया के लोगों के साथ बदसलूकी करने के बारे में थी। अधनंगी लड़कियों को उनके साथियों के साथ जिस हालत में दिखाया जा रहा था उस से किसी भी इज़तदार आदमी की नज़रें झुक सकती थी। लड़के जहां देख लेने की धमकी देते हुए गन्दी गालियाँ बक रहे थे , वहीँ एक लड़की प्रेस फोटोग्राफर को दो कौड़ी की औकात वाला कह रही थी। (काश वो अपनी औकात भी बता देती और यदि उनके घरवालों को ज़रा सी भी शर्म हया हो तो वो भी अपने गिरेबान में झाँक कर देखने का प्रयास करें) । कुछ देर बाद एक और महँगी गाडी आती है और वो लोग उसमें बैठकर वहां से खिसक जाते हैं । पुलिस भी मुंह ताकती रह जाती है। पुलिस करे भी तो क्या करे? अगर उन्हें पकड़ भी ले तो ऊंची रसूख वाले इन लड़के और लड़कियों के माँ बाप अपने नौनिहालों को तो छुडा ही लेंगे पर उन्हें पकड़ने वाले पुलिस कर्मी की शामत आ सकती है.
दूसरी खबर अखबार में पढ़ी कि शिमला के मशहूर रिज मैदान पर चंडीगढ़ से घूमने आये कुछ लड़के और लड़कियों ने शराब के नशे में धुत होकर खूब हंगामा किया । राहगीरों के साथ बदसलूकी की। इसके चलते एक लड़की को हवालात की हवा भी खानी पड़ी जबकि उसके साथी मौके से भागनिकले
तीसरी खबर आज सुबह देखी जिसमें पुणे के एक कॉलेज के ऍम बी ऐ के चार सौ छात्रों ने एक फार्म हॉउस में पार्टी का प्रोग्राम बनाया जहां सभी लड़कों और लड़कियों ने जम कर शराब पी और रात भर होस्टल से बाहर रात गुज़री।
ये सब फ्रेंडशिप डे के नाम पर हो रहा था। क्या यही फ्रेंडशिप के मायने हैं?

Wednesday, July 14, 2010

फिल्म लम्हा में अभिनेता अनुपम खेर के ऐश से सम्बंधित चर्चित डायलोग पर

फिल्मकार बंटी वालिया की नयी फिल्म लम्हा में एक संवाद है कि जब ऐश्वर्या रॉय चाँद नहीं देख पाती तो यह खबर बन जाती है लेकिन उन हजारों कश्मीरी औरतों की दशा को खबर क्यों नहीं बनाते जिन्हों ने बरसों से अपने पतिओं को नहीं देखा है। ज़ाहिर है कि इस संवाद के जरिये फिल्मकार ने मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाया है । हालाँकि इस डायलोग में आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है . इसके बावजूद मीडिया ने इस डायलोग को ऐश की प्रतिष्ठा से जोड़कर जिस प्रकार आधारहीन विवाद खड़ा करने का प्रयास किया है उस से इस संवाद में पूछे गए सवाल की अहमियत ही साबित होती है।
समाचार पत्र अमर उजाला के धर्मशाळा एडिशन के १४ जुलाई के अंक में कुल्लू के एक युवा पत्रकार की खबर उनके नाम से छपी है जिसे अखबारी भाषा में बाईलाईन खबर कहते हैं । इस खबर में युवा पत्रकार ने लम्हा फिल्म के डायलोग को इस प्रकार से पेश करने का प्रयास किया है मानो इस से ऐश की प्रतिष्ठा ही दांव पर लग गयी हो । उन्हों ने इस डायलोग के माध्यम से ऐश की खिल्ली उड़ाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि अभी तक ऐश खामोश है लेकिन जब वे पलटवार करेंगी तो क्या होगा। ( ऐसा लगता है जैसे ऐश के मुंह खोलते ही कोई राष्ट्रिय आपदा आ जाएगी ) इसके साथ ही पत्रकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पूछने पर ऐश ने ..नो कमेंट्स कहकर बात टाल दी है लेकिन साथ ही पाठकों को आगाह किया है कि ऐश ने भले ही कोई प्रतिक्रिया नहीं की है लेकिन उन्हें ऐश के ससुर अमिताभ बचन के ब्लॉग पर उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करना चाहिए । (मानो बच्चन साहिब ने उन्हें बता दिया हो कि वे शीघ्र ही ब्लॉग लिख कर डायलोग रायटर और फ़िल्मकार के विरुद्ध मोर्चा खोल कर जंग का ऐलान करेंगे )।
इस से पत्रकार महोदय क्या साबित करना चाहते हैं । अगर गौर से देखा जाए तो उस डायलोग में ऐश की नहीं बल्कि उन पत्रकारों की खिल्ली उडाई गयी है जो इस प्रकार की बेसिर पैर की ख़बरों के माध्यम से सनसनी फैलाने की कोशिश करते हैं । ख़बरों को अतिरंजित करने की प्रवृति पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

Wednesday, June 30, 2010

ऑनर किलिंग और मास ऑनर किलिंग

जिस तरह पिछले कुछ वर्षों से औंनेर किल्लिंग के मामले सामने आ रहे हैं उससे ऐसा लगता है मानो अचानक सारा राष्ट्र चिंतित हो गया है। इस पर क़ानून में संसोधन जैसी बातें भी हो रही हैं। खानदानी आन-बानऔर परिवार की इज्जत के नाम पर क़त्ल करने की सामंत वादी प्रवृति नयी नहीं है। लेकिन पिछले कुछ सालों में मिडिया के अधिक सक्रिय होने तथा मीडिया दवारा इसके लिए ऑनर किल्लिंग जैसा नया शब्द गढ़ने के बाद इन मामलों में लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है । हालांकि अब ऑनर किल्लिंग के लिए वैकल्पिक शब्द की तलाश के साथ यह शब्द स्वयंव चर्चा का विषय बन गया है । केंद्रीय क़ानून मंत्री ने भले ही इस पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से सख्त कानून बनाने की वकालत की हो लेकिन इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझे बगैर कोई भी क़ानून कारगर सिद्ध होने वाला नहीं है । यदि परिवार या खानदान की इज्जत के सवाल पर किसी परिवार द्वारा अपने ही परवार के किसी सदस्य का क़त्ल किसी भी कीमत पर करना औंनेर किल्लिंग है तो जाति, धरम, समुदाय या क्षेत्रवाद के नाम पर ttdहोने वाले नरसंहार , दंगे-फसाद और कत्ले आम की वारदातों को किस पर्सेप्तिवमें देखा जाना चाहिए । यह ऑनर किल्लिग़ का विस्तार ही तो है , क्या इसे मॉस ऑनर किल्लिंग की संज्ञा देना उचित नहीं होगा । हमारी शिक्षा तथा परम्पराओं के मौखिक और लिखित इतिहास ने ऑनर किल्लिंग को आन बाण और शान के साथ जोड़ कर हमेशा से ग्लोरिफाई किया है। समाचार पत्रों व् टेलीविजन इन घटनाओं को देखकर गुनाहगारों को कोसने वाले अधिकाँश लोग अपनी बारी आने पर इन्ही लोगों के पक्ष में खड़े दीखते हैं। सदियों से आन-बान-शान की कबीलाई सोच के चलते इसे अलग नज़रिए से देखा जाता रहा है । लेकिन मिडिया द्वारा इसके लिए गढ़ेगए नए शब्द ऑनर किल्लिंग ने थोडा सा नज़रिया बदलने की संभावना पैदा की है। अफ़सोस है की समाधान की बजाये बुद्धिजीवी वर्ग इस्ले शाब्दिक अर्थों में उलझ कर इसके लिए वैकल्पिक शब्द पर ज्यादे बहस कर रहा है। जबकि इस पारिवारिक अथवा सामाजिक मॉस हिस्टीरिया की बीमारी के इलाज के लिए कानून के संशोधन से अधिक स्वस्थ शिक्षा ढाँचे की है। क्या इतिहास में ग्लोरिफाई की गयी ऐसी गाथाओं को इतिहास में ही दफ़न करने का वक्त नहीं आ गया है?

Thursday, April 29, 2010

खाप पंचायतें और हिन्दू समाज में समान गोत्रीय शादियाँ .

पिछले कुछ दिनों से खाप पंचायतें सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाई रही । हरयाणा के एक गाँव में अपने ही गोत्र में शादी करने के आरोप में एक लड़के और लड़की को खाप पंचायत के द्वारा सुनाये गए फैसले के आधार पर उनके परिजनों नें मौत के घाट उतार दिया । इस पर सुप्रीम कोर्र्ट ने कड़ा संज्ञान लेते हुए कातिलों को मौत की सज़ा तथा खाप पंचायत के प्रधान को उम्र कैद की सज़ा सुनायी। कुछ तथाकथित प्रगतिवादियों ने कोर्ट के फैसले पर संतोष ज़ाहिर करते हुए खाप पंचायतों के आस्तित्व पर पाबंदी लगाने की मांग भी उठायी। हालांकि खाप पंचायत के चंगेजी फरमान का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए लेकिन हिन्दू समाज की मान्यताओ के चलते एक ही गोत्र में लड़के लड़की की शादी का समर्थन भी कैसे किया जा सकता है? खाप पंचायतों को कई जगह खानगी पंचायत भी कहा जाता है। इन पंचायतों के माध्यम से गाँव व् इलाके के कई विवाद सुलझाने का काम भी बखूबी अंजाम दिया जाता रहा है । एक ही गोत्र या दूसरी जातिमें शादी करने पर मौत की सज़ा देना न्यायसांगत नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार के फैसले भावावेश में लिए जाते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि समाज में इस प्रकार के रिश्तों को पनपने से केसे रोका जाए। जो लोग मानवाधिकार कि दुहाई देते हुए इस प्रकार कि शादियों को जीवन के विशेषाधिकार के तहत किसी भी व्यक्ति का निजी फैसला बताकर जायज़ ठहराने का प्रयास करते हैं , क्या वे लोग इस प्रकार कि शादियों को अपने घरों में मान्यता देसकते हैं , क्या इस प्रकार कि शादियाँ आनुवंशिकी के लिहाज से भी उचित हैं ? यदि नहीं तो इस प्रकार के व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए क्या उपाय होने चाहिए। नियम और क़ानून समाज को शान्तिव्यवस्था के साथ एकजुट रखने के लिए बनाए जाते हैं । समय के साथ इनमे संशोधन भी होते रहते हैं । जब तक कोई भी सामाजिक कायदा कायम है तब तक इसका उलंघन करने वालों के लिए इसके अनुरूप सज़ा भी मुकरर की गयी है । दुर्भाग्यवश हमारे संविधान में हिन्दुओं की विवाह पद्धति को कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया है । इसी खामी के चलते अज्ञानतावश खाप पंचायतें क्रूर फैसले देकर अपनी भड़ास निकालतीं हैं। वैश्वीकरण के इस संक्रमण काल में युवा वर्ग में समाज की पूर्व निर्धारित एवम स्थापित धारणाओं के प्रति विद्रोह पनप रहा है, जिसे नकारा नहीं नहीं जा सकता। लिव इन रिलेशनशिप की धारणा भी युवाओं की समाज के प्रति बदलती सोच का नतीजा है. अब समाज शास्त्रियों और विधिविशेषज्ञों का दायित्व बन जाता है कि वे इस पर गहनता से विचार करना आरम्भ करें।