महिला सशक्तिकरण व् घरेलू हिंसा जैसे विषयों पर आयोजित कार्यक्रमों में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन कार्यक्रमों में पुरूष नाममात्र भाग लेते हैं। इस तरह से ये आयोजन एक पक्षीय होकर रह जाते हैं। आम तौर पर यह भी देखा गया है की महिलाओं के अधिकारों की बात उठाने वाले अधिकांश संगठनों का नेतृत्व परित्यक्त अथवा अधिक उम्र की कुंवारी महिलाओं के हाथ चला जाता है। अधिकतर यह भी देखा गया है की इन सेमिनारों व् कार्यशालाओं से निकल कर आयी महिलाएं पुरुषों के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं। व्यवस्था की बजाय नारी का पुरूष विरोधी व्यवहार समाज के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता है । घरेलू हिंसा तथा समाज में नारी की कमजोर स्थिति के लिए जिम्मेवार कारकों को तलाशने की आवश्यकता है। हालाँकि इस दिशा में बहुत काम हो चुका है लेकिन इसके निष्कर्षों से निकाल कर जो व्यवस्था दी जा रही है उसमें कई मनोवैज्ञानिक खामियां हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं के मध्यम से महिलाओं के लिए जो मंच प्रदान किया जा रहा है वह बेहद निराशाजनक तथा अतिरेकपूर्ण है। इसमें नारी को पुरुषों के खिलाफ खड़ा करने की कवायद चल रही है जबकि आवश्यकता पुरूष मानसिकता में बदलाव लाने की है जो नारी को दास अथवा दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है। यह समझ सहस्राब्दियों से जारी पुरूष प्रधान समाज में पुरूष के अचेतन मन तक गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। इस गुलामी का असर महिलाओं में भी कम नही है। महिला गोष्ठियों में आज भी पति परमेश्वर की धारणा पर चर्चा होती है। अपनी नियति व् पूर्व जन्मों के कर्मों का फल मानकर नारी स्वयं इस भ्रम को अंगीकार कर लेती हैं । धर्म व् जन्म कर्मों का भय दिखा कर पति ने स्वयम को परमेश्वर के स्थान पर स्थापित कर लिया है जबकि नारी को दासवत समर्पण के लिए मानसिक तौर पर गुलाम बना डाला है। स्वेच्छा से स्वीकार की गई परतंत्रता से मजबूत अन्य कोई भी गुलामी नहीं है। यदि यह बीमार मानसिकता है तो दूसरीऔर महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठनों का नेतृत्व भी बीमार मानसिकता के हाथों में है जो समस्त पुरूष जाती को नारी का शत्रु मानकर चलती है। परिणाम स्वरुप परिवार टूटने तथा पत्नियों द्वारा पतियों को प्रताडित करने के मामले भी बढ़ रहे हैं । आवश्यकता रिश्तों में सामंजस्य स्थापित करने तथा पुरूष दृष्टिकोण को बदलने की है। लड़के व् लड़की के भेद को समाप्त करने के लिए माता पिता व् शिक्षकों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए । नसीहत देने की बजाय अपने आचरण में सुधार की प्रवृति विकसित करनी चाहिए । मसलन घर में कपड़े धोने, बर्तन साफ करने से लेकर वे सभी कार्य जो सामाजिक मान्यताओं के अनुसार लड़कियों के लिए निर्धारित किए गए हैं उनमें लड़कों की समान भागीदारी सुनिश्चित की जाए। पुरुषों की वेशभूषा की नक़ल करना, आधुनिकता के नाम पर शराब व् सिगरेट तथा अन्य व्यसनों का अनुकरण करना नारी को पुरुषों के समान नहीं बनाता। यह एक प्रकार से पुरुषों की विकृत मानसिकता के हाथों में खेलने जैसा है। यह नारी शोषण का अति सूक्ष्म रूप है। लेकिन इस से यह तात्पर्य नहीं है की नारी आक्रामक होकर पुरूष के विरुद्ध खड़ी हो जाए। यह मनोवैज्ञानिक समस्या है तथा इसके निवारण के लिए मनोवैज्ञनिक इलाज की आवश्यकता है ताकि समाज में नारी के आस्तित्व को इसकी सम्पूर्णता में स्वतंत्र रूप से स्वीकार किया जा सके।
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