Thursday, June 26, 2008

महिला संगठन महिलाओं के प्रति कितने जागरूक हैं!

महिला सशक्तिकरण व् घरेलू हिंसा जैसे विषयों पर आयोजित कार्यक्रमों में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन कार्यक्रमों में पुरूष नाममात्र भाग लेते हैं। इस तरह से ये आयोजन एक पक्षीय होकर रह जाते हैं। आम तौर पर यह भी देखा गया है की महिलाओं के अधिकारों की बात उठाने वाले अधिकांश संगठनों का नेतृत्व परित्यक्त अथवा अधिक उम्र की कुंवारी महिलाओं के हाथ चला जाता है। अधिकतर यह भी देखा गया है की इन सेमिनारों व् कार्यशालाओं से निकल कर आयी महिलाएं पुरुषों के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं। व्यवस्था की बजाय नारी का पुरूष विरोधी व्यवहार समाज के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता है । घरेलू हिंसा तथा समाज में नारी की कमजोर स्थिति के लिए जिम्मेवार कारकों को तलाशने की आवश्यकता है। हालाँकि इस दिशा में बहुत काम हो चुका है लेकिन इसके निष्कर्षों से निकाल कर जो व्यवस्था दी जा रही है उसमें कई मनोवैज्ञानिक खामियां हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं के मध्यम से महिलाओं के लिए जो मंच प्रदान किया जा रहा है वह बेहद निराशाजनक तथा अतिरेकपूर्ण है। इसमें नारी को पुरुषों के खिलाफ खड़ा करने की कवायद चल रही है जबकि आवश्यकता पुरूष मानसिकता में बदलाव लाने की है जो नारी को दास अथवा दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है। यह समझ सहस्राब्दियों से जारी पुरूष प्रधान समाज में पुरूष के अचेतन मन तक गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। इस गुलामी का असर महिलाओं में भी कम नही है। महिला गोष्ठियों में आज भी पति परमेश्वर की धारणा पर चर्चा होती है। अपनी नियति व् पूर्व जन्मों के कर्मों का फल मानकर नारी स्वयं इस भ्रम को अंगीकार कर लेती हैं । धर्म व् जन्म कर्मों का भय दिखा कर पति ने स्वयम को परमेश्वर के स्थान पर स्थापित कर लिया है जबकि नारी को दासवत समर्पण के लिए मानसिक तौर पर गुलाम बना डाला है। स्वेच्छा से स्वीकार की गई परतंत्रता से मजबूत अन्य कोई भी गुलामी नहीं है। यदि यह बीमार मानसिकता है तो दूसरीऔर महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठनों का नेतृत्व भी बीमार मानसिकता के हाथों में है जो समस्त पुरूष जाती को नारी का शत्रु मानकर चलती है। परिणाम स्वरुप परिवार टूटने तथा पत्नियों द्वारा पतियों को प्रताडित करने के मामले भी बढ़ रहे हैं । आवश्यकता रिश्तों में सामंजस्य स्थापित करने तथा पुरूष दृष्टिकोण को बदलने की है। लड़के व् लड़की के भेद को समाप्त करने के लिए माता पिता व् शिक्षकों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए । नसीहत देने की बजाय अपने आचरण में सुधार की प्रवृति विकसित करनी चाहिए । मसलन घर में कपड़े धोने, बर्तन साफ करने से लेकर वे सभी कार्य जो सामाजिक मान्यताओं के अनुसार लड़कियों के लिए निर्धारित किए गए हैं उनमें लड़कों की समान भागीदारी सुनिश्चित की जाए। पुरुषों की वेशभूषा की नक़ल करना, आधुनिकता के नाम पर शराब व् सिगरेट तथा अन्य व्यसनों का अनुकरण करना नारी को पुरुषों के समान नहीं बनाता। यह एक प्रकार से पुरुषों की विकृत मानसिकता के हाथों में खेलने जैसा है। यह नारी शोषण का अति सूक्ष्म रूप है। लेकिन इस से यह तात्पर्य नहीं है की नारी आक्रामक होकर पुरूष के विरुद्ध खड़ी हो जाए। यह मनोवैज्ञानिक समस्या है तथा इसके निवारण के लिए मनोवैज्ञनिक इलाज की आवश्यकता है ताकि समाज में नारी के आस्तित्व को इसकी सम्पूर्णता में स्वतंत्र रूप से स्वीकार किया जा सके।

हिमाचल के वनमंत्री के नाम एक पाती

हिमाचल सरकार की वन्य प्राणियों के प्रति चिंता जायज़ है लेकिन वनमंत्री जगत प्रकाश नड्डा द्वारा विशेष तौर पर बंदरों की सुरक्षा के लिए किए जा रहे उपाय उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवम व्यक्तित्व के विश्लेष्णात्मक गुण से सर्वथा विपरीत प्रतीत होते हैं। वनमंत्री यदि राजनैतिक एवम धार्मिक पूर्वाग्रहों से हटकर एक साधारण किसान के सरोकारों से जुड़कर विचार करे तो स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती हैबंदरो को भले ही प्रचलित मान्यताओ के अनुसार राम भक्त हनुमान की सेना के रूप में प्रचारित किया गया है और इसमें रामचरितमानस की विशेष भूमिका है। यहाँ इसकी सचाई अथवा इसके वैज्ञानिक आधार पर किसी प्रकार का शोध अथवा टिपण्णी करने की आवश्यकता नही समझता हु। इतना अवश्य है की समय की मांग के अनुसार आदिम काल से लेकर अब तक व्यक्ति व् समाज के हित में आस्थाओं व् मान्यताओं में व्यापक परिवर्तन लाये गए है। जिन सभ्यताओं ने समय की भाषा को नही समझा वे अतीत के गर्त में समां गए। हिंदुत्व किसी धर्म नही अपितु जिन्दगी जीने के एक फलसफे का नाम है जिसमे किसी प्रकार की कट्टरता के लिए स्थान नही है। ये हमें जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कथाओं तथा गाथाओं द्वारा अलग अलग परिवेश में प्रतीकों व् उपमाओं के मध्यम से संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। विद्रूप यह है की लक्ष्य को देखने व् समझाने की वजाए हमने लक्ष्य को इंगित करने वाली उन्गलिओं को ही लक्ष्य मान कर इस पर अपनी पकड़ इतनी मजबूत कर ली है की इस पर किसी प्रकार की आलोचना भी बर्दाश्त नही कर सकते।

जीवन आगे बढ़ते रहने की प्रक्रिया है जिसमे विचारों व् मान्यताओं में बदलाव की गुंजाईश बनी रहती है येही विज्ञान व् प्रगति का नियम भी है कमोवेश हमारे वेदशास्त्रों की रचनाओं का आधार भी वैज्ञानिक है जिसमे युग.युगांतर से विचार व् मान्यताये संशोधित संस्करणों में समाज के सामने आती रही है लेकिन हम जड़ होकर जीवन जीने की बातें करतें है महाकाव्यों एवम धरम ग्रंथों में दर्शाए गए प्रतिक व् उपमाओं को उनके जड़ रूप में प्रतिपादित कर रहे है रामभक्त हनुमान के कथित वंशज बन्दर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उत्पाती जंगली जानवर ही हैं , जिन्हें राम के इस देश की जनता से कुछ लेना देना नही है। यह भी कटुसत्य है की जंगली जानवरों को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए मनुष्य जाती भी सामान रूप से दोषी है लेकिन इस गलती के सुधार के लिए लम्बी प्रक्रिया व् लंबे अन्तराल की आवश्यकता है। इस प्रतीक्षा में स्थिति के और अधिल विकराल होने का संकट भी है। बंदरों की बढाती संख्या ने जो विकराल स्थिति उत्पन्न की है इसका अनुमान उस किसान के खेत में जाकर लगाया जा सकता है जिसकी वर्ष भर की भोजन व्यवस्था को क्षण भर में तहस नहस कर दिया जाता है उस गृहिणी की आंखों के दर्द व् होठों से निकली बद्दुआ में प्रकट होता है जिसके सामने उसके नौनिहालों के मुह का निवाला पुरी दादागिरी के साथ कथित हनुमान की सेना द्वारा छीन लिया जाता है ये हनुमान नही अपितु उत्पाती बाली की उत्पाती सेना है जिसका संहार करने के लिए स्वयं भगवन राम ने धनुष उठाकर उसे अपने तीरों से बिंध डाला था। प्रदेश में सरकारी आंकडो के अनुसार करीब सादे चार लाख बन्दर है जबकि तीन साल पहले इनकी संख्या लगभग साथ हजार के आसपास थी। बंदरों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के बाद इनकी संख्या में निरंतर बढोतरी हुई है। अब स्थिति यह है की तीन परिवारों के पीछे एक बन्दर बैठा है वन निति में खामिओं के कारन वन्य प्राणियों ने आवास क्षेत्र की और रुख कर लिया है जंगलों में चीड जैसे पौधे लगाकर वनों की विविधता समाप्त कर दी है तथा वन्या प्राणियों के आश्रय के लिए जंगली फल तथा कंदमूल का आभाव पैदा हो गया शहरों व् गावों की और रुख करने के बाद अब इनकी भोजन सम्बन्धी आदते भी बदल गई ही जिन्हें सुधारने के पर्यास किए जा रहे हैं लेकिन इसमे काफ़ी समय लगेगा जबकि इस समस्या के लिए तुंरत कार्रवाई की आवश्यकता हे। इधर वनमंत्री जी को बंदरों के आहार में प्रोटीन और विटामिन्स शामिल करने की चिंता है लेकिन क्या कभी उन्हों ने प्रदेश के उन लाखों बचों का ख्याल किया हे जो कुपोषण का शिकार हे। उन बच्चियों की फ़िक्र की हे जो रक्ताल्पता के कारन अनेक बीमारियों का शिकार हो रही हैं बचाव में यह तर्क दिया जा सकता हे की ये वन मंत्रालय का कार्य नही हे। वन मंत्री होने के नाते उन्हें केवल वनों व् वन्य प्राणियों की चिंता करनी हे। भाजपा सरकार का मंत्री होने के कारन श्री राम की कथित बानर सेना की सुरक्षा की चिंता करना उनकी प्राथमिकता बन गया हे। लेकिन इसी तर्क पर यह पूछा जाना भी वाजिब हे की किसानों की फसलों को उजाड़ने में बराबर के जिम्मेवार सुवरों तथा चूहों के लिए वनमंत्री के एजेंडा में क्या हे , क्योंकि वे भी तो वराह अवतार के रूप में विष्णु के प्रतीक हैं तथा choohon की to प्रथम poojniy bhagwaan गणेश के रूप में पूजा होती है। यह भी kadwa सच है की देश का लाखों मन अनाज choohon dwaara बरबाद कर दिया जाता हैहालाँकि उन्हें मारने की अनुमति वन विभाग द्बारा किसानों को दे दी गयी हे लेकिन आवश्यकता वन विभाग के साथ कृषि तथा बागवानी विभागों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की हे।
यह नही है की प्रदेश के किसान पशु पक्षी प्रेमी नही हैं। गावों का किसान आज भी अपने भोजन से पहले चौखट पर कुत्तों व् बिल्लियों को रोटी का टुकडा डालता है अपने आँगन में चिडिओं के लिए दाना डालता है, कटोरे में उनके लिए पानी डालकर रखता है। अपने खेत में बीज डालने के बाद परमात्मा से दसों के भाग्य के लिए अनाज पैदा करने की प्रार्थना करता है अपने खलिहान से भिक्षुओं व् भिखारियों के लिए उनका हिस्सा अलग करके रखने की परम्परा आज भी विद्यमान है लेकिन येही किसान अपने खेत से एक भी डाली का नुक्सान करने वाले के प्रति रौद्र हो उठता है खेती के नुक्सान पर वोह अपने पड़ोसी पर लाठी भी उठा सकता है। यह हमारा ग्रामीण परिवेश तथा इसकी परम्पराएँ हैं। यदि क्षमा व् अभयदान की प्रवृति हमारी संस्कृति का अंग है तो अन्याय व् अत्याचार के विरुद्ध शास्त्र उठाना भी हमारा चारित्रिक गुन है। सीधी बात है की उत्पाती हो जाने पर किसी असामाजिक तत्व को फांसी पर चढाने में हिचक नहीं होती तो बंदरों के मामले में क्यों? यदि देश की सीमा पर विदेशी खतरा देखकर निरपराध सैनिक दूसरे देश के निरपराध सैनिक पर गोकि चलाने में संकोच नहीं करता तो बंदरों के प्रति क्यों? पर्यावरण स्नातुलन की दुहाई देने वालों को यह भी समझ लेना चाहिए की बन्दर तथा चूहों की कुछ प्रजातियाँ पर्यवार्नीय संतुलनबनाने की वजाए बिगाड़ने की स्थिति में पहुँच चुके हैं बंदरों के लिए अभ्यारण्य बनाने की पहल का नतीजा शिमला क्षेत्र के तारा देवी में देखने को मिल चुका है। जहाँ से सत्तर फीसदी बन्दर भाग कर निकटवर्ती गावों में उत्पात मचा रहे हैं। केवल नसबंदी अथवा नालबंदी समस्या का उपाय नहीं है। इसके किए वैज्ञानिक संहार तथा निर्यात पर प्रतिबन्ध हटाने जेसे कदम उठाने होंगे। राजनेतिक विवशता के चलते शायद वनमंत्री खुलकर इन सुझावों पर अमल कर सके लेकिन दिन के भोजन के बाद जब वनमंत्री एवम तथाकथित पशुप्रेमी संस्थाओं के पदाधिकारी वामकुक्षी मुद्रा में दोपहर को अपने अपने वातानुकूलित कक्षों में विश्राम करते हैं उस समय इस पर अवश्य विचार करें की कोई किसान कड़ी धुप में अथवा कडाके की ठण्ड व् बरसात में कथित राम्सेना से अपने खेतों की रक्षा के लिए अपने परिवार सहित संघर्षरत है। यह अवश्य विचार करें की विकसित देशों के वैज्ञानिक नए नए अनुसन्धान एवम पर्योगों के लिए बन्दर और अन्य जानवर उपलब्ध होने के कारण गरीब देशों के जीवित मनुष्यों पर प्रयोग कर रहे हैं उनका दावा है की ये अनुसंधान मनुष्य जाती के हित में किए जा रहे हैं जबकि सचाई यह है की पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के मद्देनज़र सादे सात अरब जनसँख्या से अधिक जनसंख्या भी पृथ्वी के लिए खतरा है। इसलिए इस संतुलन को बनाए रखने के लिए इस बहाने मनुष्य जाती की सैन्तिफिक कलिंग की जा रही है गरीब देश के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है।