Thursday, April 29, 2010

खाप पंचायतें और हिन्दू समाज में समान गोत्रीय शादियाँ .

पिछले कुछ दिनों से खाप पंचायतें सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाई रही । हरयाणा के एक गाँव में अपने ही गोत्र में शादी करने के आरोप में एक लड़के और लड़की को खाप पंचायत के द्वारा सुनाये गए फैसले के आधार पर उनके परिजनों नें मौत के घाट उतार दिया । इस पर सुप्रीम कोर्र्ट ने कड़ा संज्ञान लेते हुए कातिलों को मौत की सज़ा तथा खाप पंचायत के प्रधान को उम्र कैद की सज़ा सुनायी। कुछ तथाकथित प्रगतिवादियों ने कोर्ट के फैसले पर संतोष ज़ाहिर करते हुए खाप पंचायतों के आस्तित्व पर पाबंदी लगाने की मांग भी उठायी। हालांकि खाप पंचायत के चंगेजी फरमान का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए लेकिन हिन्दू समाज की मान्यताओ के चलते एक ही गोत्र में लड़के लड़की की शादी का समर्थन भी कैसे किया जा सकता है? खाप पंचायतों को कई जगह खानगी पंचायत भी कहा जाता है। इन पंचायतों के माध्यम से गाँव व् इलाके के कई विवाद सुलझाने का काम भी बखूबी अंजाम दिया जाता रहा है । एक ही गोत्र या दूसरी जातिमें शादी करने पर मौत की सज़ा देना न्यायसांगत नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार के फैसले भावावेश में लिए जाते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि समाज में इस प्रकार के रिश्तों को पनपने से केसे रोका जाए। जो लोग मानवाधिकार कि दुहाई देते हुए इस प्रकार कि शादियों को जीवन के विशेषाधिकार के तहत किसी भी व्यक्ति का निजी फैसला बताकर जायज़ ठहराने का प्रयास करते हैं , क्या वे लोग इस प्रकार कि शादियों को अपने घरों में मान्यता देसकते हैं , क्या इस प्रकार कि शादियाँ आनुवंशिकी के लिहाज से भी उचित हैं ? यदि नहीं तो इस प्रकार के व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए क्या उपाय होने चाहिए। नियम और क़ानून समाज को शान्तिव्यवस्था के साथ एकजुट रखने के लिए बनाए जाते हैं । समय के साथ इनमे संशोधन भी होते रहते हैं । जब तक कोई भी सामाजिक कायदा कायम है तब तक इसका उलंघन करने वालों के लिए इसके अनुरूप सज़ा भी मुकरर की गयी है । दुर्भाग्यवश हमारे संविधान में हिन्दुओं की विवाह पद्धति को कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया है । इसी खामी के चलते अज्ञानतावश खाप पंचायतें क्रूर फैसले देकर अपनी भड़ास निकालतीं हैं। वैश्वीकरण के इस संक्रमण काल में युवा वर्ग में समाज की पूर्व निर्धारित एवम स्थापित धारणाओं के प्रति विद्रोह पनप रहा है, जिसे नकारा नहीं नहीं जा सकता। लिव इन रिलेशनशिप की धारणा भी युवाओं की समाज के प्रति बदलती सोच का नतीजा है. अब समाज शास्त्रियों और विधिविशेषज्ञों का दायित्व बन जाता है कि वे इस पर गहनता से विचार करना आरम्भ करें।