Monday, July 7, 2008

चारों युगों का लेखा जोखा

भोर की पहली किरन के साथ

मंदिरों की घंटियाँ

मस्जिदों की अजान

लेकर आती है नए सतयुग की सुबह।

सतयुग की दहलीज लांघकर

त्रेता युग की मर्यादा का गठर लादे हुए

द्वापर के कर्मक्षेत्र की दोपहर में

प्रवेश किया जाता है , और छिड़ जाता है

महाभारत

एक जीवन संग्राम .

निति कुनीति के तरकश से

चलाये जाते हैं असंख्य तीर,

मूक दर्शक बना सूरज

शाम ढले तक

गीता का उपदेश बनकर

क्षितिज को रक्त रंजित करते हुए

मुंह छिपा लेता है।

तब आरम्भ होता है कलयुग का तांडव

देर रात तक

उचित अनुचित

नेतिकता -अनेतिका का अन्तर

मिटा दिया जाता है ।

और चारों युगों का कलंक लेकर

गहराता है ब्रह्म रात्री का भयावह अन्धकार

जहाँ सारा कोलाहल शून्य में विलीन हो जाता है

पुनः एक नए सतयुग की सुबह की प्रतीक्षा में.

यह सब निरंतर , निर्बाध जारी है.